बुधवार, 29 नवंबर 2017

Hadd hai means !!
माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कल कहा कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग पदमावती के विरोध में कोई बयान न दे, हम कानून के शासन में बैठे है, इससे केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड दबाव में आ सकता है।
माननीय आप क्यों चिंतित हो पदमावती के भविष्य को लेकर ?
क्या आपको देश की संस्कृति की रक्षा की कोई चिंता नहीं ?
ऐसा कौनसा कानून है जिसके तहत कोई भी जिम्मेदार व्यक्ति किसी फिल्म की गलत पटकथा के विरुद्ध नहीं बोल सकता ?
क्या आपके इस निर्देश से अभिव्यक्ति की आजादी नामक चिड़िया नहीं छटपटायेगी ?
क्या वजह थी कि आपने पदमावती विवाद से जुड़ी याचिकाओं को सुनने से मना कर दिया, जबकि एक आतंकवादी की फांसी रुकवाने को दायर याचिका सुनने को आप रात को दो बजे अदालत लगाकर बैठ जाते है।
केरल के लव जिहाद मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने पीड़िता अखिला अशोकन उर्फ हादिया को तमिलनाडु के सालेम में अपनी होम्योपैथी की पढ़ाई करने के लिए सुरक्षा प्रदान करने हेतू केरल पुलिस को तमिलनाडु में भेजकर तैनात कर दिया।
बड़ी चिंता है माननीयों को लव जिहाद की पीड़िता को सुरक्षित रखने की।
वह भी तब, जब वो यह कह रही है कि पढ़ाई पूरी करते ही सीरिया जायेगी।
सीरिया जाकर आईएसआईएस की एक और आतंकी बन जायेगी।
क्या देश की सुरक्षा के प्रति माननीय की कोई ज़िम्मेदारी नहीं ?
कौनसा कानून है जो ऐसे समाजकंटकों और देशद्रोही लोगों को प्रश्रय देने के लिए माननीय को मजबूर कर रहा है ?
दूसरी तरफ लखीमपुर में देश के दुश्मन हाफिज सईद की आज़ादी का पटाखे फोड़ कर जश्न मना रहे लोग माननीयों को बिल्कुल नजर नहीं आ रहे।
क्या इन पटाखों का धुआं देश की सुरक्षा के लिए प्रदूषित वातावरण बनाने में मददगार नहीं है ?
क्या समझा जाये इस अनीति को ?
कानून और संविधान क्या सिर्फ देशद्रोहीयों और समाजकंटकों को सुरक्षा देने के लिए ही है।
विगत दिनों में देखा जा रहा है कि न्यायपालिका अपने दायरे से बहुत बाहर जाकर विभिन्न मुद्दों पर अति-सक्रियता दिखा रही है। कई बार अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं के अधिकारक्षेत्र में अतिक्रमण भी करते पाये गये है, लेकिन संविधान की सर्वोच्चता के तहत विशेषाधिकार की परिकल्पना का दुरुपयोग करके लगभग निरंकुशता दिखा रहे है।
लगता है कि अब समय आ गया है कि समूचे संविधान का पुनरीक्षण किया जाये और सभी संवैधानिक संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र तय किये जायें।
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शनिवार, 22 जून 2013

उत्तराखण्ड त्रासदी : जिम्मेदार कौन ?

उत्तराखण्ड में भीषण प्राकृतिक आपदा ने हर एक हिन्दुस्तानी कि आत्मा को झकझोर दिया है। जो तबाही का मंजर प्रिन्ट और विजुअल मीडिया द्वारा दिखाया जा रहा है , उन को देख देख कर अन्तर्मन की गहराई तक मानव शरीर की नश्वरता और ईश्वर की सत्ता की परिकल्पना की प्रामाणिकता का अहसास स्वतः ही हो उठता है. हालाँकि कुछ लोग जो की ईश्वर  की सत्ता मैं विश्वास नहीं रखते है वो इसको अपनी विचारधारा के अनुसार इस रूप मैं भी देखते है की जो तीर्थयात्री भक्ति भावना लेकर प्रभु केदारनाथ के दर्शन के लिए गए थे उनको भगवान् बचा क्यों न सका, इस प्रकार वो अपनी सोच और समझ के मुताबिक इस घटना का तारतम्य बिठाने की कोशिश मैं लगे है. ऐसे लोगो मैं तथाकथित सोशल  एक्टिविस्ट और मार्क्सवादी कलमकार किस्म के लोग शामिल है .इन लोगो की रोजी-रोटी भी तो इसी आधार पर चलती है जितना ज्यादा वो भारतीय सभ्यता और संस्कृति को नीचा दिखा पाएंगे उतना ही वो अपनी विचारधारा मैं ऊँचे उठ पायेंगे . खैर . . . . हिंदुस्तान मैं हर नागरिक को अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है।
                            कुछ लोगो का मत इनसे भिन्न है वो तीर्थयात्रियो द्वारा पहाडो पर फेलाए जा रहे प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराते है. कुछ-कुछ इस बात से मैं भी इत्तेफाक रखता हूँ लेकिन सारा दोष तीर्थयात्रियो के माथे मढ देना गलत है. जितने जिम्मेदार बाहर से तीर्थयात्रियो के रूप मैं जाने वाले लोग है उस से कही ज्यादा गुना जिम्मेदार  वहां  के स्थानीय निवासी है  जो की वहां व्यवसायिक गतिविधिया चला रहे है. साथ ही वो लोग भी जिम्मेदार  है जो वहां  पर्यावरण और पहाड़ की शुद्धता को बनाये रखने के लिए उत्तरदायी  है और इस कार्य की मोटी  तनख्वाह उठाते है. क्यों ऐसी नौबत आई की वहां सेंकडो की संख्या मैं होटल और अन्य व्यवसायिक गतिविधिया संचालित हो रही है. लोग ये तर्क देते है की पिछले कुछ सालो मैं तीर्थयात्रियो की संख्या बेतहाशा बढ़ गयी है जिस की वजह से पहाड़ पर व्यावसायिक  गतिविधिया भी बेतहाशा बढ़  गयी है। लेकिन कही न कही उन  लोगो की स्वार्थ-लोलूपता ज़िम्मेदार है. मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ, राजस्तान के सीकर शहर के पास हर्ष का पहाड़ एक जगह है, जहा भगवन शिव और भैरव का अति प्राचीन मंदिर स्थित है ,यों तो पूरे साल ही वह श्रद्धालुओं का आना जाना लगा रहता है लेकिन बरसात के मौसम मैं प्रतिदिन हजारों लोग वहां धार्मिक  आस्था और प्राकृतिक छटा का मिश्रित आनंद लेने जाते है , वो पूरा स्थान वन विभाग के द्वारा संरक्षित है और वहां किसी भी प्रकार की व्यासायिक गतिविधिया संचालित करने पर रोक है. ऐसे मनोरम स्थान पर अगर होटल रिसोर्ट या होली डे होम खोल दिए जाए, कुछ खाने पीने की दुकाने और कुछ शोपिंग करने के लिए खुल जाये तो स्वतः ही ये स्थान एक पयटन स्थल के रूप मैं विकसित हो जायेगा  लेकिन आज दिन तक वहां पर कोई भी ऐसी व्यावसायिक गतिविधि नहीं चल रही है. मैं धन्यवाद देता हूँ राजस्थान वन विभाग के उन अधिकारियों - कर्मचारियों को जिन्होंने अपने कर्तव्य को बखूबी निभाते हुए आज तक इस मनोरम स्थान को सुरक्षित रखा है.
                 पूरे हिंदुस्तान मैं इस त्रासदी के पीडितो की सहायता करने की स्वतः-स्फूर्त भावना जग पड़ी है , लोग अपने अपने तरीके से पीडितो की मदद करने को आगे  आ रहे है. जो आर्थिक रूप से सक्षम है वो आर्थिक योगदान कर रहे है. कुछ लोग इसके लिए जाग्रति फेलाने का काम कर रहे है। कुछ कर्मठ और उत्साही लोग एक कदम आगे बढाकर स्वयं उत्तराखंड जा पहुंचे है और सीधे राहत और बचाव कार्य मैं योगदान दे रहे है। मैं भारतीय सेना का वैसे भी बहुत बड़ा फेन हूँ, मेरे मन मैं भगवन के बाद अगर किसी के लिए सबसे ज्यादा सम्मान है तो इस भारतवर्ष की महान सेना और सैनिकों के लिए है और आज ये सम्मान और ज्यादा बढ़ गया है जब मैं टीवी और अख़बारों मैं अपनी जान पर खेल कर नागरिको को बचाते हुए सैनिको को देखता हूँ . राजस्थान के बहुत से लोग वहां फंसे हुए है कुछ लोग लापता है, कुछ मारे भी जा चुके है,  मैं साधुवाद देता हूँ राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत और उनके मातहत प्रशासनिक अधिकारियो-कर्मचारियों को जो पिछले दो दिनों से खुद देहरादून मैं कैंप करे हुए है और वहां फंसे हुए राजस्थानियों की हर संभव मदद कर रहे है . साथ ही मैं गुजारिश करता हूँ हर भारतीय नागरिक से की मुसीबत की इस घडी मैं पीडितो की हर संभव सहायता करने की पुरजोर कोशिश करे और इस दिव्य देवस्थान के पुनर्निर्माण मैं अपना तन-मन-धन से योगदान डे.
जय हिन्द !
जय भारत !

बुधवार, 22 अगस्त 2012

बचपन की मेरी प्रतिज्ञा


बचपन में जैसे ही होश संभाला तो स्कूल में प्रार्थना के पश्चात् हम सब से एक प्रतिज्ञा करवायी जाती थी,उस प्रतिज्ञा का एक एक शब्द आज भी मेरे स्मृति-पटल पर अमिट स्याही से छपा हुआ है. प्रतिज्ञा की पहली ही लाइन कुछ ऐसे हुआ करती थी," मैं एक भारतीय हूँ,समस्त भारतीय मेरे भाई बहन है......"
                 भारत के राजाओं ( तथाकथित जनप्रतिनिधियों ) को जाने क्या सूझी है की वो इस प्रतिज्ञा को झुठलाने में लगे है, भाईचारा जो शाश्वत रूप से हिंदुस्तान में रचा बसा है उसको अपनी वोटों की फसल काटने के लिए  जाती और धर्म आधारित आरक्षण को पदोन्नति में भी  लागु करके वर्ग संघर्ष के माध्यम से इस भाईचारे को नेस्तनाबूद करने का कुत्सित विचार रखते है.
                  अब तो पानी सर के ऊपर से बहाने की तैयारी की जा रही है. जरा सोचिये की अगर दो सगे भाइयों में उनके माँ-बाप ही अगर विभेद करने लग जाए तो उन भाइयों में प्रेम कैसे कायम रहेगा.नियुक्तियां तो नियुक्तियां अब तो पदोन्नति में भी आरक्षण लागू करने की कवायद चल रही है. जान बूझ कर वर्ग संघर्ष को बढ़ावा देकर अपना स्वार्थ पूर्ति की कोशिश की जा रही है. पहले भी आरक्षण के सहारे कुछ राजनेताओं ने भरपूर वोटों की फसल काटी है और काटते जा  रहे है. और इन लोगों का दुस्साहस तो देखिये अपनी स्वार्थ-पूर्ती के लिए ये भारत के संविधान को भी ठेंगा दिखाना चाह रहे है. अनेकों बार सर्वोच्च न्यायालय ने इनके पदोन्नति में भी आरक्षण देने के इस कुत्सित प्रयास को रोक दिया तो अब इन लोगो नें ऐसा रास्ता अख्तियार किया है की संसद में विधेयक पारित करवाकर संविधान में संशोधन करवाकर हमेशा के लिए इनके वोटों की फसल में बार बार आड़े आ रहे भारत के सर्वोच्च न्यायालय को भी मजबूर कर दिया जाए की वो कानून के दायरे में आकर इनकी वोटों की फसल को रोक नहीं सके.
                   पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए लाये जा रहे इस विधेयक पर सहमती बनाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाकर सबको इसके लिए राजी करने के प्रयास किये गए, उस बैठक में ये देखकर बहुत बड़ा धक्का लगा की कोई भी राजनैतिक पार्टी ऐसे बेतुके विधेयकों का स्पष्ट तौर पर विरोध करने की हिमाकत नहीं कर सकी सिवाय सपा के, और सपा ने भी सिर्फ इसीलिए विरोध किया की उनको तो हर हाल में मायावती का विरोध करना है,और देश और देशवासियों से कोई सरोकार नहीं है.आज भारत की सारी राजनैतिक पार्टिया वोटों की राजनीती के पीछे भारत की एकता को ताक में रखती जा रही है, मुझे तो ये भी समझ में नहीं आ रहा की आने वाले आम चुनावों में किसको वोट करूँगा, कोई सांपनाथ नजर आ रहा है और कोई नागनाथ.
                   ऐसे में लगता नहीं की हिंदुस्तान में ज्यादा लम्बे समय तक इस कुत्सित प्रयास को रोका जा सकेगा, हाँ अगर वर्ग-संघर्ष पैदा हो जाता है तो भी इन राजनेताओं को तो उसमे भी वोटों की फसल उगाना बखूबी आता है.इस तरह से इनके तो दोनों ही हाथों में लड्डू है.
               लेकिन समझ में नहीं आता की बचपन में ली हुयी उस प्रतिज्ञा का क्या होगा ....... अगर मुझसे योग्यता में कमतर कोई व्यक्ति जो की पहले मुझसे जूनियर था और मेरे सामने ही अपनी जाती के लेबल की वजह से मेरा अफसर बन जाये, जबकि वो उस पद के लिए योग्यता नहीं रखता, और में अपने आप को ठगा सा महसूस करूं, तो मेरी वो प्रतिज्ञा कैसे कायम रह पायेगी, मैं कैसे उसको अपना भाई समझ पाउँगा......

रविवार, 3 जून 2012

जनरलों की मुसीबतहिंदुस्तान में आजकल जनरलों की हालतधोबी के कुत्ते जैसी हो रखी है, न तो घरके रहे है और न ही घाट के !आज एक और जनरल अपनी कैरियर केमहत्वपूर्ण एक साल को सरकार के हाथों गंवाकर रिटायर हो गए, साथही सरकार की कार्यशैली औरविश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा गए.पहली बार भारतीय सेना के प्रमुखको अपने ही देश की सरकार के खिलाफअदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा, और उनकी इस ध्रष्टता के लिए शायदउनको अपनी बाकि की जिंदगी अदालतों केचक्कर लगाने में ही बितानी पड़ेगी.क्या करे बेचारे जनरल जो ठहरे, अगरवो जनरल के बजाय कोई दलितया अल्पसंख्यक होते तो हजारों राजनितिक और गैरराजनैतिक संगठन और व्यक्ति उनके पीछेखड़े हो जाते, लेकिन 'जनरल'कभी भी वोट बैंक की परिभाषा मेंनहीं आते, अगर ऐसा होता तो मुलायम,लालू, मायावती और सलमान खुर्शीद सरीखे नेताओं में जनरल के हिमायती बननेकी होड़ सी मच जाती और जनरलको आज ही सेना से लास्ट परेडकी सलामी न लेनी पड़ती, और नही प्रधानमंत्री कार्यालयकी किसी आला अधिकारी की हिम्मत पड़ती की जनरल की देश में सैन्य सामानऔर गोला बारूद की कमी को लेकरप्रधानमंत्री को लिखी गयी अति-गोपनीयचिट्ठी को मिडिया को लीक कर दे.लेकिन क्या करते ? बेचारे 'जनरल' जो ठहरे ! खैर अब तो इस देश में जनरलों को दोयमदर्जे का नागरिक बने रहने की आदतसी पद गई है, क्यों की अगरवो विद्यार्थी है तो उसके प्रथम श्रेणी केअंक होते हुए भी किसी अच्छे संस्थान मेंउसको दाखिला न दिया जाकर किसी 'वोट बैंक' श्रेणी के तृतीयश्रेणी अंको वाले उसी केसहपाठी को सिर्फ इस लिएदाखिला मिलता जिसके लिएवो योग्य नहीं है, लेकिन बेचारा जनरलक्या कर सकता है. अगर वो कोईकर्मचारी या अधिकारी हैतो उसको तो उसी पद से रिटायरहोना है जिस पद परउसकी नियुक्ति हुयी है. हाँ उसका कोईभी मातहत व्यक्ति उस से आगे जाकर उसी का अफसर बन सकता है, जैसेकी यदि कोई जनरल पुलिस में उपनिरीक्षक पद पे नियुक्त होता हैतो उसको तो ये मान लेना चाहिएकी उसे जिंदगी भर उप निरीक्षकही रहना है, या फिर ज्यादा ही उसके सितारे बुलंद है तो वृत निरीक्षक बन केरिटायर हो सकता है, वहीँ उसका कोईमातहत यदि उस विशेष श्रेणी का हुआजिसको हिंदुस्तान में आरक्षित वर्गकहा जाता है तो निश्चितही वो अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक तक पहुँच जायेगा. लेकिन जनरलबेचारा क्या कर सकता है ?अब वो दिन दूर नहीं है जब की रोडवेजकी बस में चढ़ते ही कंडक्टर आपसेजाती प्रमाण पत्र मांगेगा, अगर आपअल्पसंख्यक या एस टी है तो आपको सीट न. १ से १५ तक बैठने का अधिकार है,यदि आप एस सी वर्ग के आरक्षण से सु-संपन्न है तो आपको सीट न. मिलेगा १६ से३०, ओ बी सी वर्ग को उपलब्धतानुसार३१ से ५० न. तक की सीट मिल जाएगी,लेकिन अगर आप अनारक्षित वर्ग का जाती प्रमाण पत्र लेकर बस में चढनेलगे तो कंडक्टर आपको तुरंत नीचे उतारदेगा और कहेगा की बस की छत पर देखलो अगर जगह मिले तो चढ़ जाना औरहाँ ये शर्त है की अगर कोई आरक्षित वर्गका यात्री आ जाता है तो तुझे उसी समय बस की छत पर से भी उतरजाना होगा क्यों की ये सरकारी बस है.क्या करे बेचारा जनरल जो ठहरा !!!